निकलो भ्रम के भंवर से, छोड़ो नपुंसक चिंतन
चुनाव को लेकर आम मतदाताओं के मन में न रूचि है न उत्साह, बल्कि वितृष्णा और विराग है। इसलिए नहीं कि लोग चुनना पसंद नहीं करते बल्कि इसलिए कि चुनने को कुछ बचा हुआ ही नहीं पाते। चयन श्रेष्ठ का होता है और श्रेष्ठता ढूंढे नहीं मिल रही हो तो किसे चुने।
फरिश्तों के वेश में हाथ जोड़े जो चेहरे घर के बाहर आज दिखाई दे रहे हैं वे कल चुनाव होते ही लुप्त हो जायेंगे। ऐसा नहीं कि लोकतंत्र से हमें कुछ नहीं मिला, मिला है चुनने का अधिकार। कोई हमें सपने दिखाने के लिए सुलाने का यत्न करता है तो हमें जागने का उपक्रम क्यों नहीं करना चाहिए। आजादी के बाद से रोटी मुहैया कराने के नाम पर नेता भूखे पेटों से वोट निकालते रहे और सूखी आंखों को निचोड़कर विश्वास की चमक जगाते रहे कि कल जब वे जीत जायेंगे तो एक नई सुबह होगी, जिसमें हर थाली में रोटी और हर सूखी आंख में रोशनी जगमगाएगी। वह सुबह तब से आज तक अवाम के लिए इंतजार ही बनी हुई है।
कंगाल मतदाता अपने खीसे से वोट बांटता रहा है, उस सुबह के इंतजार में जिसमें थाली में रोटी और आंखों में रोशनी होगी। दशकों बाद भी मतदाता वहीं का वहीं खड़ा है। आने वाली 17 नवम्बर के लिए उसे फिर से तमाम दिवा सपनों की अफीम चटाई गई है,उसे मदहोशी की नींद सोने पर विवश कर दिया गया है, क्योंकि सपना तो होश खोने पर या सोने पर ही देखा जा सकता है। जब मतदान हो चुकेगा और कंगाल मतदाता की तंद्रा टूटेगी तब सपने के सौदागर गायब हो चुके होंगे। हम किनारे लगने की कोशिश में हर बार भंवर में फंस जाते हैं, हर बार रोशनी का भ्रम हमें छलता है। यथार्थ के अंधकार को हमारी आंखें देख नहीं पातीं। अभी भी समय है भ्रमों के पार देखने का मगर प्रचार और वादों की चकाचौंध में हम अपनी आंखें सिकोड़े बैठे हैं। कोई नहीं जानता कल क्या होगा किसकी सरकार बनेगी कोई निर्णय नहीं कर पा रहा जो निर्णय कर चुके उनके निर्णय अनुरूप परिणाम नहीं निकलते। परिणाम तो अनिर्णय में रहने वालों के ही बूते निकलते हैं।
दो चार प्रतिशत मतों के इधर से उधर होने पर जहाँ सरकारें बदल जाती हों ऐसे में एक एक मत का महत्व हो जाता है। कंगाल मतदाता के दान किए मतों से सत्ता के सिंहासन पर बैठने वालों से पूछिए जिनकी औकात बीते कल में साइकिल की नहीं थी वे आज कैसे लक्जरी कारों में सैर सपाटा करते हैं। कैसे हवाई यात्राओं का ऐश भोग रहे हैं, उनके इस वैभव का अंकगणित क्या है और दान करने वाला मतदाता वहीं का वहीं क्यों है। विडम्बना यह है कि निर्णय ले सकने वाले या सोच समझकर रास्ता तय करने वाले पोलिंग बूथ तक जाते ही नहीं। निर्णय ले सकने वाले यदि वोट डालने घर से निकलेंगे ही नहीं और निर्णय लेने का जिम्मा उन पर सौंप देंगे जो खुद अनिर्णय के शिकार हैं, तो वोटिंग मशीन से रोटी की थाली और रोशनी की किरण कैसे निकलेगी जो खुद डांवाडोल हों वे स्थिर और जवाबदेह प्रतिनिधि या सरकार कैसे चुन पायेंगे नेता जानते हैं कि हम आंख मूंद कर वोट देते हैं इसलिए चुनाव के दौरान राजनीति के माहौल में भाषणों से भ्रम का अंधेरा फैलाकर हमें अनुकूल माहौल का एहसास कराया जाता है।
जब तक इस अंधेरे से पार नहीं पाओगे रोशनी कहाँ से लाओगे। राजनीति के हमाम में निर्वस्त्रों के लिए यह अंधेरा सुविधा साबित हो सकता है मगर मतदाता के लिए तो यह असुविधा ही है। इस अंधकार के पार जाइए और मताधिकार का सोच समझ कर निर्णय लेकर प्रयोग जरूर करिए अन्यथा कमरों में बैठ नपुंसक चिंतन से तस्वीर नहीं बदलने वाली। तस्वीर बदलने के लिए मतदान के इस महायज्ञ में वोट की आहूति सोच समझकर पूरे मनोयोग से डालिए अवश्य, दान हमेशा सुपात्र को किया जाता है, कुपात्र को किया दान कष्टड्ढ का कारक बनता है फिर भी यदि कोई उम्मीदवार पसंद नहीं तो भी इस बार न पसंद का बटन दबाइए मगर मतदान केन्द्र तक जाइए जरूर। यह एक वोट ही हमारी आपकी और इस क्षेत्र व प्रदेश की तकदीर लिखेगा।