विधानसभा चुनावों की आहट के चलते मध्यप्रदेश में अब राजनीतिक तापमान चढऩे लगा है। शिवपुरी जिला सिंधिया घराने की राजनीति का मुख्य केंद्र बिंदु रहा है ऐसे में ग्वालियर चंबल संभाग में सबसे अहम स्थान रखने वाले शिवपुरी की राजनीति भी चरम पर है। गत लोकसभा चुनाव में सिंधिया की करारी हार के बाद यहां सारे समीकरण उलट.पुलट हो रहे हैं। इस समय अंचल की राजनीति में यदि सर्वाधिक हलचल कहीं देखी जा रही है तो वह सिंधिया कैंप में दिखाई दे रही है।
ग्वालियर चंबल संभाग: चरम पर तनाव
एक के बाद एक बिखर रहे महल समर्थकों को समेटने की कमजोर कोशिशें शुरू हो गई है। हालांकि जब ज्योतिरादित्य सिंधिया अपने समर्थकों के साथ भाजपा में आए थे उस समय ही यह आशंका जताई जा रही थी कि बीजेपी का मूल कॉडर इस दलबदल को स्वीकार नहीं करेगा और नाराजगी बढ़ेगी, लेकिन तत्समय सत्ता के मोह के चलते के चलते संगठन स्तर पर इस ओर कोई ध्यान नहीं दिया गया।
भाजपा आंतरिक विवादों में उलझी
अब चुनावी वर्ष में नेताओं की नाराजगी और भाजपा में बिखराव का संकट स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता है। राजनीति के जानकारों का मानना है कि अभी तो यह ट्रेलर है, जैसे ही आगे टिकट वितरण होगा यह असंतोष और जबरदस्त फूटन और बगावत का कारण बनेगा। इसे लेकर संगठन भी जहां चिंता की मुद्रा में है उधर वहीं ग्वालियर चंबल के क्षत्रप केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया के लिए यह समय उनके राजनीतिक जीवन का सबसे बड़ा संकट का समय कहा जा रहा है।
एक तरफ मूल भाजपाई काडर उनसे और उनके समर्थकों से नाराज है तो दूसरी तरफ महाराज कांग्रेस के भी प्राइम टारगेट पर हैं। और इन सब के बीच उनके अपने ही एक एक कर साथ छोडने चले जा रहे हैं। कल तक सिंधिया की एक झलक पाने को लालायित रहने वाले नेताओं का उनसे मोह भंग होना कहीं ना कहीं किसी बड़ी व्यवहारिक कमी को दर्शाता है, यहां उनके खासम खास रहे कई घरानों के लोग उनसे पल्ला झाड़ कर विरोधी दल की गोद में जाकर बैठ रहे हैं और अब उन्हें सिंधिया के विरुद्ध सार्वजनिक तौर पर बयान जारी करने में भी कतई परहेज नहीं रहा है।
शिवपुरी जिले की बात करें तो यहां बैजनाथ सिंह यादव, राकेश गुप्ता, रघुराज धाकड़, उनका साथ छोड़ चुके हैं। जबकि कोलारस विधायक वीरेंद्र रघुवंशी से लेकर संसद के पी यादव तक सिंधिया से भाजपा में रहते हुए भी कोसों दूरी बनाये हुए हैं। वीरेंद्र रघुवंशी तो शिवपुरी जिले की कोलारस सीट से विधायक वीरेंद्र रघुवंशी तो बैठक में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के सामने ही सिंधिया समर्थक प्रभारी मंत्री महेंद्र सिंह सिसोदिया के खिलाफ मोर्चा खोल चुके हैं। उन्हें लगता है कि सिसोदिया उनसे ज्यादा तरजीह महेंद्र यादव को देते हैं और उनके टिकट के लिए लॉबिंग कर रहे हैं। विधायक वीरेंद्र रघुवंशी इसी कारण नाराज चल रहे हैं।
भाजपा में जहां तोमर गुट की सिंधिया खेमे से दूरी है वहीं यशोधरा राजे सिंधिया समर्थक भाजपाई भी न केवल ज्योतिरादित्य सिंधिया से बल्कि उनके मंत्रियों से वास्ता कम ही रखते हैं और उनके कार्यक्रमों में कहीं नजर नहीं आते।
शिवपुरी जिले में सिंधिया के संकट
ग्वालियर चंबल क्षेत्र में जहां कभी सिंधिया की तूती बोलती थी, वहां आज हालात यह है कि बगावत के स्वर सर्वाधिक इसी क्षेत्र से निकलकर सामने आ रहे हैं। केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर को चुनाव प्रबंधन समिति का संयोजक बनाए जाने के बाद से सिंधिया खेमे में और निराशा की लहर देखी जा रही है। अबकी बार टिकट आवंटन में सिंधिया को ग्वालियर चंबल संभाग में फ्री हैंड मिलेगा इसकी संभावना बेहद कमजोर मानी जा रही है। क्षेत्रीय राजनीति में तोमर खेमा और सिंधिया गुट एक दूसरे के प्रतिद्वंदी खेमे के तौर पर जाने जाते हैं।
शंका यह जताई जा रही है कि सिंधिया समर्थक विधायकों और मंत्रियों के भी टिकट पर कैंची चल सकती है, और यदि ऐसा हुआ तो बगावत का एक नया एपिसोड यहां दिखाई देना तय है। जानकारों की माने तो दरअसल भारतीय जनता पार्टी ने ज्योतिरादित्य सिंधिया का भरपूर इस्तेमाल कर लिया और सत्ता हासिल कर ली, लेकिन अब पार्टी संगठन की निगाहों में सिंधिया की उपयोगिता पहले जैसी नहीं रही है। सिंधिया की काँग्रेस में वापसी की संभावनाओं पर भी भाजपा ने सिंधिया को सदन में राहुल गांधी और उनके परिवार के बारे में हमलावर बना कर खत्म कर दी हैं।
सिंधिया घराने के विरुद्ध सबसे ज्यादा आक्रामक तेवर वे नेता अपना रहे हैं जो हाल ही सिंधिया का पल्लू छोड़ कर काँग्रेस में शामिल हुए हैं, इतिहास में इससे पूर्व कभी भी खुलकर मंचों से सिंधिया घराने के प्रति अशोभनीय शब्दावली अथवा विरोध जैसे कोई स्वर मुखर नहीं हुए थे। उधर भाजपा में भी पूर्व विधायक से लेकर सांसद और नेता ग्वालियर के इन महाराज के लिए जिस शब्दावली को उपयोग कर रहे हैं, वह उनके काँग्रेस में रहते किसी ने सपने में भी नहीं सोचा होगा।
ज्योतिरादित्य के लिए उनके पिता स्व माधवराव सिंधिया ने काँग्रेस में कई दशकों की राजनीति कर जो जमीन तैयार की थी लगता है उसे सिंधिया के दलबदल के एक फैसले ने एक ही झटके में खिसका दिया है। भाजपा में रहकर उलाहनों के बीच राजनीति उन्हें कि स हद तक रास आएगी यह कहना मुश्किल है, लेकिन फिलहाल उनके समक्ष कोई विकल्प भी दिखाई नहीं दे रहा।
नहीं रहा कोई कालूखेड़ा सा संकटमोचक
अतीत की बात करें तो पूर्व में सिंधिया के खास सिपहसालार रहे महेंद्र सिंह कालूखेड़ा सारा डैमेज कंट्रोल संभालते थे। तनिक भी विद्रोह के स्वर मुखर होने से पूर्व भी वे माहौल को भाँप लेते थे और उन्हें एन केन प्रकरेण मौन कर देते थे। महेंद्र सिंह कालूखेड़ा के निधन के बाद सिंधिया की तरफ से फील्डिंग जमाने वाला कोई कद्दावर नेता इलाके में न होने से हवा उल्टी बहने लगी और जो राजनेता कभी सिंधिया के आभामंडल से बाहर नहीं निकल पाते थे वह अब सीना तान कर सिंधिया विरोधियों के साथ गलबहियाँ कर रहे हैं।
धरातल के हालात यह हैं ग्वालियर चंबल की राजनीति के क्षत्रप रहे सिंधिया के कथित जमावट करने वाले लोग केवल अपना चेहरा चमकाने के चक्कर में किसी को भी सिंधिया के नजदीक नहीं फ टकने देना चाहते, ऐसे में उनका सोच है कि कहीं हमारे नंबर कम ना हो जाएं। सूत्रों की माने तो इस बड़े भारी डैमेज को कण्ट्रोल करने के लिए सिंधिया के निजी स्टाफ के पुराने सदस्यों का सहारा लिया जाकर समर्थकों को एक ही पाले में बनाए रखने की कवायद शुरु हो रही है देखना यह है कि यह फैलारा अब किस हद तक समेटा जा सकता है क्योंकि चुनावों में अब चंद दिन रह गए हैं।