सत्ता की सियासत में सिमट रहा है महाराज का दायरा, संकट में अपनों ने छोड़ा साथ

महल के वर्चस्व को बरकरार रखना सिंधिया के सामने बड़ी चुनौती
  • एक तरफ काँग्रेस डाल रही है घेरा, वहीं भाजपा में भी बुलंद हो रहे विरोध के स्वर
  • टिकटाबंटन में फ्री हैण्ड के चांस न के बराबर
  • तोमर के बढ़े कद के बीच अपने ही गढ़ में कम होने लगा महाराज का प्रभाव

ग्वालियर चंबल में सिंधिया घराने का अपना दबदबा स्टेट टाईम से रहा है। काँग्रेस और भाजपा की राजनीति में इस घराने की तूती बोलती रही है। लेकिन इस समय की परिस्थितियों को देखें तो यह समय इस घराने की राजनैतिक क्षत्रपी का सबसे कठिनतम दौर कहा जा सकता है। सिंधिया घराने के मुखिया महाराज ज्योतिरादित्य सिंधिया अपनी इस क्षत्रपी को बरकरार रखने के लिए काँग्रेस से भाजपा में आए मगर यह क्या हुआ एकाएक उन्हेंं उनके अपनों ने ही चुनावी वेला में असहज स्थिति में ले जाकर खड़ा कर दिया है। कहां एक वक्त था जब सिंधिया को प्रदेश के सीएम के चेहरे के तौर पर उनको देखा और प्रचारित किया जा रहा था। आज ये दौर है कि उनकी भूमिका को उस दल ने एक दायरे में समेट कर रख दिया है जिसे थाली में परोसकर सरकार का तोहफा सिंधिया ने दिया।

इस समग्र परिदृश्य पर गौर करें तो भाजपा ने नरेंद्र सिंह तोमर को मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव प्रबंधन समिति का समन्वयक बनाकर इस बात के संकेत दे दिए हैं, कि टिकटावंटन में सिंधिया का हस्तक्षेप कम से कम रहेगा। ग्वालियर-चंबल इलाके में भाजपा पहले ही गुटबाजी से जूझ रही है। 2020 के शुरुआती महीनों में सिंधिया और उनके समर्थकों के काँग्रेस छोड़कर भाजपा में आने के बाद से ही वहां गुटबाजी चरम पर है। प्रदेश की क्या बात करें सिंधिया को सर्वाधिक विरोध का सामना तो उनके अपने गढ़ कहे जाने वाले ग्वालियर चंबल मेें ही झेलना पड़ रहा है एक एक कर उनके तमाम समर्थक भाजपा का दामन छोड़ कर काँग्रेस में जिस तरह से गए उससे सिंधिया अपने ही गढ़ में कमजोर हो गए। भाजपाई यह तर्क देने से नहीं चूक रहे कि जो अपने साथियों को मैनेज नहीं कर पा रहे उन्हें नहीं रोक पा रहे वे प्रदेश को कैसे और किस बिनाह पर मैनेज करने की सोच सकते हैं।

यह स्थिति तब है जब भाजपा में गए सिंधिया को भाजपा ने वह सब कुछ दिया जिसकी उन्होंने मांग की। उनके समर्थकों को मंत्री बनाया गया, विधानसभा चुनाव में टिकट दिए गए और चुनाव हारने वालों को निगम बोर्डों में मंत्री का दर्जा देकर जगह दी गई। मगर खुद ही समय के साथ साथ उन्होंने अपना धरातल खो दिया। अब हर बार उनकी मांगे ही मानी जाएंगी इसकी संभावना कतई नहीं है।सब कुछ रहते हुए भी वह क्या कारण रहा कि उनके समर्थक ही उनका साथ छोड़ गए आज जो उनके साथ हैं, उनको भी टिकट की कोई गारंटी दे पाना संभव नजर नहीं आ रहा। चूंकि चुनाव प्रक्रिया में उन्हें अहमियत नहीं मिल रही है इसलिए उनके लिए अपने समर्थकों को टिकट दिलवाना भी मुश्किल होगा। ऐसे में यह टूटन और बढ़ सकती है। अमित शाह भोपाल में कह गए हैं कि हमें किसी भी कीमत पर चुनाव जीतना है। ऐसे में टिकट वितरण में भी जीतने की क्षमता ही देखी जाएगी न कि यह कि आप भाजपा नेता हैं या कांग्रेस से आए हैं।

सही बात तो यह है कि ग्वालियर चंबल के स्थानीय भाजपा नेताओं को सिंधिया का पार्टी में आना शुरु से ही रास नहीं आया। अब जो हालात हैं उनमें भाजपा नेतृत्व टिकट वितरण अपनी मर्जी से करेगा। वर्तमान हालतों में सिंधिया अब पार्टी के खिलाफ भी नहीं जा सकते हैं क्योंकि उनके सामने कोई ज्यादा विकल्प नहीं है।

अब चुनावी गणित देखें-

ग्वालियर और चंबल के आठ जिलों में 34 विधानसभा सीट हैं। 2018 में काँग्रेस ने इनमें से 26 जीती थीं जबकि भाजपा को सात और एक सीट बसपा को मिली थी। उस समय सिंधिया काँग्रेस में थे। कमलनाथ की सरकार गिरने के बाद हुए विधानसभा चुनाव में 28 में से भाजपा को 19 और काँग्रेस को नौ सीटों पर जीत मिली थी।प्रियंका गांधी ने अपनी ग्वालियर यात्रा में पहली बार जो तेवर दिखाए उसके चलते आने वाले समय में इसे सिंधिया की सम्भावित घेराबंदी से भी जोड़ कर देखा जा रहा है।

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Rahil Sharma
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