- किसी एक नेता या मंत्री के पीछे नहीं दिखती पूरी पार्टी
- जिसका नेता उसके ही समर्थक साथ दिखते हैं, गुटों में फांक फांक बंटी पार्टी
- आने वाले समय में कुछ और बड़े चेहरों की रवानगी तय
राजनीति में सिंधिया के गढ़ कहे जाने वाले गुना शिवपुरी क्षेत्र में चुनावों के ठीक पहले सिंधिया के वफादारों का लगातार क्रम में भाजपा से पल्ला झाड़कर काँग्रेस में जाना अब महल के लिए चिंतन का विषय हो होता जा रहा है। क्या कारण है कि भाजपा संगठन से लेकर खुद सिंधिया भी इस पलायन को रोक पाने की स्थिति में नहीं हैं। हाल ही एक एक कर चार कद्दावर पार्टी छोड़ गए, सिंधिया समर्थक तो गए ही साथ ही अब मूल भाजपाई भी काँग्रेस में पहुंच रहे हैं जो संगठन के लिए सोचनीय विषय है कि आखिर ये हालात बने तो कैसे बने। कहां एक स्थिति यह थी कि जिस किसी के ऊपर सिंधिया का हाथ होता था न केवल टिकट उसे मिलता था बल्कि वह विजयी भी होता था, आज जो हालात हैं उनमें खुद सिंधिया के सिपहसालार पार्टी का हाथ और उनका साथ छोड़ कर भाग रहे हैं।
जितने नेता उतने गुट
प्रदेश के अन्य हिस्सों की तुलना में शिवपुरी में यह पलायन अधिक देखने में आ रहा है। दरअसल यहां भाजपा कई गुटों में बंटी है, पार्टी के भीतर इस कदर से खींचतान है कि जिसका नेता उसके समर्थक ही दिखाई देते हैं, शेष भाजपाई नदारद रहते हैं। क्षेत्र में ज्योतिरादित्य सिंधिया खेमा अलग है तो विधायक श्रीमती यशोधरा राजे खेमा अलग है, यहां नरेन्द्र सिंह तोमर गुट अलग है तो सांसद केपी यादव भी इस खेमेबंदी में नजर आ रहे हैं। मजेदार नजारा तब दिखाई देता है जब जिले में इनमें से किसी नेता का आगमन होता है तो मंच से लेकर कलेक्टोरेट की बैठकों में तक उनके साथ उनके अपने समर्थकों की भीड़ तो होती है मगर भाजपा के ही दूसरे खेमे उनसे इस कदर से दूरी बनाते हैं जैसे वे विपक्ष से हों।
एक दूसरे की जासूसी के आरोपों से सोशल साईट गर्माई
अब तो हालात इस कदर बदतर हैं कि यहां एक दूसरे के समर्थकों की जासूसी कराए जाने के आरोप भी अब सोशल मीडिया पर खुलकर लगाए जा रहे हैं। स्क्रीन शॉट्स से लेकर कौन किसके साथ दिखा ये सब कलेक्शन भाजपाई ही भाजपाईयों के विरुद्ध जुटाते हुए वायरल हो रहे हैं। यह सब इस बात का परिचायक है कि पार्टी में गुटबंदी चरम पर है। भाजपा सरकार के सात सात मंत्री इस जिले में सक्रिय हैं, मगर सातों कभी एक मंच पर बैठे हों ऐसा अवसर शायद ही कभी आया हो। प्रभारी मंत्री महेन्द्र सिंह सिसौदिया के आसपास भी स्थानीय विधायक समर्थक खेमा नजर नहीं आता, इसी प्रकार से मंत्री सुरेश रांठखेड़ा के साथ मूल भाजपाई ढूंढे नहीं दिखाई देते। कहने का लब्बोलुआव यह कि कोई एक दूसरे को फूटी आंख देखना नहीं चाहता। यहां मूल भाजपा में भी देखें तो मण्डल और जिले के नेताओं के बीच भी साफ लकीर देखी जा सकती है।
जिसका नेता उसकी सक्रियता
जिले में होने वाले राजनीतिक और प्रशासनिक कार्यक्रमों में कौन-कौन से नेताओं के चेहरे दिखाई देंगे, यह इस बात पर निर्भर रहता है कि कार्यक्रम में आ कौन सा नेता रहा है। सांसद केपी यादव,मंत्री यशोधरा राजे या खुद ज्योतिरादित्य सिंधिया।
भाजपा से वापस आए सिंधिया समर्थक नेताओं का दर्द यह है कि उनको भाजपा में कोई सम्मान नहीं मिल रहा था और सिंधिया भी एक कॉकस के अलावा किसी से कोई संवाद कायम करने से पीछे हटते थे, ऐसे में अपनी मिट्टी कुटवाने से क्या फायदा।
जिनसे अलग हुए वे ही हिस्से में आए
अब बात करें खुद सांसद केपी यादव की तो वे मूल रुप से सिंधिया समर्थक कॉंग्रेसी थे, मगर बाद में हालात ऐसे बने कि सिंधिया के विरोध के चलते वे भाजपा में जा पहुंचे और सिंधिया से ही चुनाव जीते, मगर बदले हुए हालातों में सिंधिया खुद काँग्रेस छोड़ भाजपा में जा पहुंचे तब से केपी यादव की पूछ परख उनके अपनो ने ही बंद कर दी है। गाहेबगाहे उनका यह दर्द कई वार सार्वजनिक मंचों से झलका है। कमोवेश कोलारस विधायक वीरेन्द्र रघुवंशी भी सिंधिया द्वारा राजनीति में आने वाले नेता हैे जिन्हें 2007 के उप चुनाव में सिंधिया ने लड़ाया और जिताया भी मगर बाद के विधानसभा चुनावों में वे भी महल के समीकरणों में ऐसे उलझे कि सिंधिया के विरोध के चलते उन्होंने काँग्रेस को छोड़ भाजपा का दामन थामना पड़ा और वे कोलारस से विजयी भी रहे। भाजपा में भी सिंधिया की मौजूदगी ने उन्हें विधायक होते हुए वे पार्टी में साईड लाइन करवा दिया, जबकि उनसे चुनाव हारे सिंधिया समर्थक महेन्द्र यादव समानान्तर विधायकी जैसा जलवा आज भी छान रहे हैं। इस वेदना के चलते आने वाले कल में वीरेन्द्र और केपी जैसे चेहरे भी काँग्रेस में वापसी करते हैं तो अचम्भा नहीं होना चाहिए।